कपास की खेती जोरदार कमाई करे

 


फसल उत्पादन तकनीक

    1. जलवायु की आवश्यकता
    2. भूमि
    3. फसल चक्र
    4. खेत की तैयारी
    5. बीज दर
    6. गंधक के अम्ल द्वारा बीजों का रेशाविहीनीकरण
    7. सावधानियॉ
    8. लाभ
    9. बीज शोधन
    10. बुवाई का उपयुक्त समय
    11. बुवाई व दूरी
    12. उर्वरक
    13. छटाई (प्रूनिंग)
    14. खरपतवार नियंत्रण
  1. सिंचाई व जल निकास
  2. फसल सुरक्षा तकनीक
    1. प्रभावी बिन्दु
  3. रोग एवं नाशीजीव का प्रबन्ध
    1. पल्लवनाशक रसायन (डेफ्रोलियेन्ट) का प्रयोग
  4. चुनाई व भण्डारण
  5. कपास की खेती में आई.पी.एम. विधि द्वारा कीट नियन्त्रण
  6. कपास के अवस्थावार नाशीजीव
    1. 1. वानस्पतिक बढ़वार अवस्था (1 से 30 दिन)
    2. 2. कलिक विकास अवस्था (31 से 60 दिन)
    3. 3. पुष्प अवस्था (61 से 100 दिन)
    4. 4. 100 दिन से आगे (गूलर बनने एवं पकने की अवस्था)
  7. कपास के मित्र जीव
    1. कपास के लिए आई.पी.एम. पद्धतियों के उपाय का विवरण निम्नवत् है खेती सम्बन्धी उपाय
    2. यान्त्रिक उपाय
    3. मित्र जीवों का संरक्षण
    4. उपयोगी प्राणियों की बढ़ोत्तरी
  8. कपास कीड़ों के आर्थिक क्षति स्तर
  9. प्रभावी बिन्दू।  कपास एक महत्वपूर्ण नकदी फसल है। व्यावसायिक जगत में यह ‘श्वेत स्वर्ण’ के नाम से जानी जाती है। प्रदेश में कपास के अंतर्गत 5 लाख हे. क्षेत्रफल था जो घटकर 14 हजार हे. रह गया है। प्रदेश को लगभग 5 लाख रूई की गांठों की प्रतिवर्ष आवश्यकता है। प्रदेश में व्यापक स्तर पर कपास उत्पादन की आवश्यकता है। भूमि जलस्तर में कमी, कपास मूल्य में वृद्धि बेहतर फसल-सुरक्षा उत्पादन तकनीक, कपास-गेहूँ फसल चक्र हेतु अल्प अवधि की अधिक उपज देने वाली प्रजातियों का विकास, बिनौले को तेल व खली की व्यापक उपयोग, भारत सरकार द्वारा ‘काटन टेक्नालॉजिकल मिशन’ की स्थापना आदि कपास की खेती हेतु अनुकूल परिस्थितियां है। प्रदेश में कपास की औसत उपज 2 कुन्तल/हे. है। जो सभी कपास उत्पादक राज्यों से अत्यन्त कम है। अलाभकारी होने के कारण कृषक कपास की खेती के प्रति आकर्षित नहीं होते। आधुनिक निम्न फसल उत्पादन एवं फसल सुरक्षा तकनीक अपनाकर 15 कु./हे. तक औसत उपज प्राप्त की जा सकती है तथा 15-12 ह जार रू./हे. तक का शुद्ध लाभ कपास से प्राप्त किया जा सकता है।

    फसल उत्पादन तकनीक

    जलवायु की आवश्यकता

    उत्तम जमाव हेतु न्यूनतम 16 डिग्री सेन्टीग्रेट तापमान फसल बढ़वार के समय 21 से 27 डिग्री सेन्टीग्रेट तापमान व उपयुक्त फलन हेतु दिन में 27 से 32 डिग्री सेन्टीग्रेट तापमान तथा रात्रि में ठंडक का होना आवश्यक है। गूलरों के फटने हेतु चमकीली धूप व पाला रहित ऋतु आवश्यक है।

    भूमि

    बलुई, क्षारीय,कंकड़युक्त व जलभराव वाली भूमियां कपास के लिए अनुपयुक्त हैं। अन्य सभी भूमियों में कपास की सफलतापूर्वक खेती की जा सकती है।

    फसल चक्र

    कपास गेहूं
    कपास सूरजमुखी
    कपास बरसीम/जई
    कपास सूरजमुखी-धान-गेहूँ
    कपास गन्ना- गेहूँ
    कपास मटर
    कपास मटर-गन्ना-गन्ना पेडी
    प्रजातिअवधिऔसत उपज(हे./हे)रेशे की लम्बाई (मिमी)ओटाई (प्रतिशत)कताई अंक
    देशी
    लोहित175-1801517.538.56-8
    आर.जी. 8175-1801516.539.06-8
    सी.ए.डी. 4145-1501617.539.439.4
    अमेरिकन
    एच.एस. 6165-1701224.833.430
    विकास150-1651625.63430
    एच. 777175-1801622.533.830
    एफ.846175-1801425.43530
    आर.एस. 810165-1701525.234.230
    आर.एस. 2013160-16516263530

    लोहित सी.ए.डी. 4 एवं विकास उत्तर प्रदेश के लिए संस्तुत प्रजातियां हैं। अन्य प्रजातियां परीक्षणों में उत्तम पाई गई हैं उनमें आर.जी.-8 आर.एस.- 810, राजस्थान की एफ.-846 पंजाब की एच.-777 व एच.एस.-6 हरियाणा की प्रजातियां हैं। इनकी खेती भी प्रदेश में की जा सकती है।

    खेत की तैयारी


    कपास की बुवाई से पूर्व दो बार पलेवा की आवश्यकता होती है। पहला पलेवा लगाकर मिट्टी पलटने वाले हल से एक गहरी जुताई (20-25 सेमी.) करनी चाहिए। दूसरा पलेवा कर कल्टीवेटर या देशी हल से तीन-चार जुताइयां करके खेत तैयार करना चाहिए। उत्तम अंकुरण के लिए भूमि का भुरभुरा होना आवश्यक हैं। मथुरा, आगरा आदि जनपदों में जहां नलकूपों में खारा पानी है वहाँ नहरों के पानी द्वारा पलेवा कर खेत की तैयारी करें।

    बीज दर

    देशी प्रजाति15 किलोग्राम प्रति हेक्टर (रेशा रहित)
    अमेरिकन प्रजाति20 किलोग्राम प्रति हेक्टर (रेशा सहित)

    गंधक के अम्ल द्वारा बीजों का रेशाविहीनीकरण

    मिट्टी/प्लास्टिक के बर्तन में बीज लेकर ऊपर से व्यापारिक श्रेणी का सांद्र गंधक का अम्ल डालकर (10 किग्रा अमेरिकन बीज हेतु 1 किग्रा गंधक का अम्ल तथा 6 किग्रा देशी बीज हेतु 600 ग्राम गंधक का अम्ल) बीजों को प्लास्टिक की छड़ या डंडे से तेजी से चलना चाहिए, जिससे सभी बीज अम्ल के सम्पर्क में आ जावें। रेशे जलने की प्रकिया में 2-3 मिनट लगता है। जैसे ही रेशे जल जावें 10 लीटर साफ पानी डालकर छड़ या डंडे द्वारा बीजों को हिलाएं। इसके बाद महीन छिद्र युक्त प्लास्टिक की जाली से बीज युक्त अम्ल घोल को डालकर पूरी तरह से बहा दें व तीन-चार बार साफ पानी से धुलाई करें। साफ धुले हुए बीज को 1 मिनट तक रसायन घोल (50 ग्राम सोडियम बाइकार्बोनेट व 10 लीटर पानी) में डुबाएं व पुनः साफ पानी से एक बार बीज धोएं (ऐसा करने से अवशेष अम्ल की क्रियाशीलता भी निष्क्रिय हो जाती है)। धुलाई के समय पानी की सतह पर तैरने वाले हल्के अपरिपक्व व कटे बीज को निकाल दें। केवल भारी स्वस्थ्य बीजों को छाया में पतला-पतला फैलाकर सुखा लें

  10. सावधानियॉ

    • धातु/लकड़ी का बर्तन प्रयोग में न लाएं।
    • बीज अम्ल के सम्पर्क में अधिक समय तक न रहे।
    • हाथों में रबड़ के दस्ताने पहनें।
    • अम्ल युक्त घोल (अवशेष) को किसी अनुपयोगी जगह पर बहाएं।

    लाभ

    • रेशारहित बीज की ग्रेडिंग की जा सकती है जबकि रेशायुक्त की नहीं।
    • अम्ल द्वारा बीज के ऊपर की फफूंदी, शाकाणु झुलसा रोग के जीवाणु व गुलाबी कीट के डिम्भ नष्ट हो जाती हैं।
    • बीजों में नमी शोषित करने की क्षमता बढ़ जाती है, जिसके अंकुरण अच्छा होता है।

    बीज शोधन

    बीज सुखाने के बाद कार्बेन्डाजिम फफूंदनाशक द्वारा 2.5 ग्राम प्रति किग्रा. की दर से बीज शोधन करना चाहिए। फफूंदनाशक दवाई के उपचार से राइजोक्टोनिया जड़ गलन फ्यूजेरियम उकठा और अन्य भूमि जनित फफूंद से होने वाली व्याधियों को बचाया जा सकता है। कार्बेन्डाजिम अन्तप्रवाही (सिस्टेमिक) रसायन है। जिससे प्राथमिक अवस्था में रोगों के आक्रमण से बचाया जा सकता है।

    बुवाई का उपयुक्त समय

    जनपदप्रजातिबुवाई का उपयुक्त समय
    मथुरा, आगरादेशीअप्रैल का प्रथम पखवारा
     अमेरिकनमध्य अप्रैल से मध्य मई
    अन्य जनपददेशीअ्रप्रैल का प्रथम व दूसरा पखवारा
     अमेरिकनमध्य अप्रैल से मई का प्रथम सप्ताह

    बुवाई व दूरी

    सामान्यत: कपास की बुवाई हल के पीछे कूंड़ों में की जाती है। ट्रैक्टर द्वारा बुवाई करने पर कतार से कतार की दूरी 67.5 सेमी. व पौध से पौध की दूरी 30 सेमी. तथा देशी हल से बुवाई करने पर कतारों के मध्य की दूरी 70 सेमी. व पौधे से पौधे की दूरी 30 सेमी. हो। भूमि में जहां जलस्तर ऊँचा हो या लवणीय मिट्टी/पानी हो या जलभराव की समस्या हो वहां मेड़ों पर बुवाई करना उपयोगी है। इसके लिए 20-25 सेमी. ऊंची मेड़े बनाकर नीचे से दो तिहाई भाग पर निश्चित दूरी पर खुर्पी द्वारा मेड़ों पर बुवाई करें। बुवाई हेतु प्रतिस्थान केवल 4-5 बीज ही प्रयोग करें।

    उर्वरक

    उर्वरकों का प्रयोग मृदा परीक्षण के आधार पर करना उपयोगी है। कपास में केवल नत्रजन व फास्फोरस उर्वरकों की ही संस्तुति है, जो निम्न है

    प्रजातियांतत्व की मात्रा (किग्रा./हेक्टर)उर्वरक की मात्रा (किग्रा./हेक्टर)
     नत्रजनफास्फोरसयूरिया(46 प्रति.नत्रजन)डी.ए.पी. (18 प्रति. नत्रजन,46 प्रति.फास्फोरस)सुपरफास्फेट(16 प्रति.फास्फोरस)
    देशी व अमेरिकन603012067188

    डी.ए.पी. एवं यूरिया का प्रयोग करने पर 67 किग्रा. डी.ए.पी. एवं 105 किग्रा. यूरिया का प्रयोग करना चाहिए अथवा सुपर फास्फेट+यूरिया प्रयोग करने पर 188 किग्रा. सिंगल सुपर फास्फेट तथा 130 किग्रा. यूरिया का प्रयोग करना चाहिए।

  11. ध्यान दें
    यदि 27 किग्रा.डी.ए.पी./एकड़ प्रयोग किया जावे यूरिया की मात्रा 10 किग्रा. कम कर दें। यदि कपास की बुवाई गेहूँ के बाद की जावे और गेहूँ में संस्तुत फास्फोरस की मात्रा प्रयोग किया गया हो तो फास्फोरस न दिया जावे।
    नत्रजन की आधी फास्फोरस की पूरी मात्रा खेत में बुवाई से पूर्व कूड़ों में आखिरी जुताई पर करनी चाहिए। यदि किसी कारण बुवाई के पूर्व नत्रजन न दिया जा सके तो उसे छटाई (प्रूनिंग) के बाद दिया जावे। शेष नत्रजन का प्रयोग बराबर मात्रा में फूल प्रारम्भ होने व अधिकतम फूल आने पर (जुलाई में) करें। इस बात का ध्यान रखें कि नत्रजन पौधे के बगल ही में दिया जावे (पौधे के तने से चार इंच दूर) न कि पत्तियों पर यदि फूलों व गूलरों का झरण अधिक हो व लगातार आसमान में बदली छाई रहने के कारण धूप पौधों को न मिले तो 2 प्रतिशत डी.ए.पी. घोल का छिड़काव करना लाभप्रद है।

    छटाई (प्रूनिंग)

    अत्यधिक व असामयिक वर्षा के कारण सामान्यतः पौधों की ऊंचाई 1.5 मीटर से अधिक हो जाती है, जिससे उपज पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। अतएव 1.5 मीटर से अधिक ऊंचाई वाली मुख्य तने की ऊपर वाली सभी शाखाओं की छटाई सिकेटियर (कैंची) के कर देनी चाहिए। इस छटाई से कीटनाशक रसायनों के छिड़काव में आसानी होती है तथा छिड़काव का प्रयोग पर पूरी तरह संभव होता है।

    खरपतवार नियंत्रण

    कपास की अच्छी उपज लेने हेतु पूरी तरह खरपतवार नियंत्रण होना अति आवश्यक है। इसके लिए तीन-चार बार फसल बढ़वार के समय गुड़ाई ट्रैक्टर चालित कल्टीवेटर या बैल चालित त्रिफाली कल्टीवेटर द्वारा करनी चाहिए। पहली गुड़ाई सूखी हो जिसे पहली सिंचाई के पूर्व (बुवाई के 30-35 दिन पहले) ही कर लेनी चाहिए। फूल व गूलर बनने पर कल्टीवेटर का प्रयोग न किया जावे। इन अवस्थाओं में खुर्पी द्वारा खरपतवार निकाल देना चाहिए। 3.30 किग्रा. पेंडीमेथलीन प्रति. हे. जमाव से पूर्व या बुवाई के में 2-3 दिन के अन्दर प्रयोग करेकरें

  12. सिंचाई व जल निकास

    कपास की उपज पर सिंचाई एवं जल निकास का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। पहली सिंचाई बुवाई के 30-35 दिन बाद करनी चाहिए। यदि वर्षा न हो तो 2-3 सप्ताह के अंतर से सिंचाई की आवश्यकता होती है। इस बात का विशेष ध्यान रखे कि फूल व गूलर बनते समय पानी की कमी कदापि न हो अन्यथा कलियां फूलों व गूलरों का अत्यधिक झरण होगा। यदि दोपहर में पौधों की पत्तियां मुरझाने लगे तो सिंचाई कर देनी चाहिए। मध्य सितम्बर में भी कभी-कभी पानी की आवश्यकता पड़ती है। इस समय सिंचाई करने से गूलर शीघ्र फटते हैं। सिंचाई करते समय सावधानी रखनी चाहिए कि पानी हल्का लगाया जावे और पौधों के पास न रूके। फसल बढ़वार के समय वर्षा का पानी खेत में प्रायः रूक जाने से वायु संचार रूक जाता है पौधे पीले पड़कर मर जाते है। अतः इस बात का विशेष ध्यान रखें कि पौधे के पास रूकने वाले पानी को यथाशीघ्र निकाल दें। खेत में जल निकास हेतु एक मुख्य नाली का भी होना आवश्यक है।

    कीट रहित साफ सूखी कपास की चुनाई

    कीट ग्रसित कपास की चुनाई अलग–अलग करनी चाहिए। अमेरिकन कपास की चुनाई 15-20 दिन व देशी कपास की 8-10 दिन के अन्तराल पर करनी चाहिए। भण्डार गृह सूखा व चूहों के प्रकोप से रहित हो।

    फसल सुरक्षा तकनीक

    प्रभावी बिन्दु

    • अम्ल उपचारित बीजों का ही बुवाई हेतु प्रयोग किया करे।
    • अमेरिकन कपास में शाकाणु झुलसा रोग (वैक्टीरियल ब्लाइट) तथा फफूंद जनित रोगों के बचाव हेतु खड़ी फसल में वर्षा प्रारम्भ होने पर दो छिड़काव 20-25 दिनों के अन्तर से रसायन घोल (1.250 ग्राम कापर आक्सी क्लोराइड 50% घुलनशील चूर्ण व 50 ग्राम एग्रीमाइसीन/7.5 ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लीन सल्फेट प्रति हेक्टर की दर से) 600-800 लीटर पानी में घोलकर। इन रसायनों का प्रयोग कीटनाशक रसायनों को 600-800 लीटर पानी के साथ किया जा सकता है।
    • अमेरिकन कपास में हरा फुदका (जैसिड) व सफेद मक्खी का प्रकोप अधिक होता है। इन रस चूषक कीटों का नियंत्रण आर्थिक क्षति स्तर ज्ञात करने के बाद ही करना चाहिए। नेपसेक मशीनों हेतु 300 लीटर व शक्ति चालित मशीनों हेतु 125 ली. घोल प्रति हेक्टेर पर्याप्त है।
    कीटआर्थिक क्षति स्तरकीटनाशक की मात्रा प्रति हेक्टर
    हरा मच्छर (जैसिड)पौधो की पूर्ण विकसित ऊपरी पत्तियां के किनारे जब पीले व मुड़े हुए हो तो छिड़काव किया जावें।750 मि.ली. 25 ईसी.(मिथाइल आक्सीडिमेटान)या 750 मि.ली. 25 ई.सी. (फारमोथियान)या 625मि.ली. डाइमेथिएट 30 ई.सी. या 85 एस.एलका आवश्यक पानी में घोल बनाकर छिड़काव करे।
    सफेद मक्खीपौधों के ऊपरी भाग की प्रत्येक पत्ती पर जब 6-8 वयस्क हो तो छिड़काव किया करे।उपर्युक्त की भॉति कीटनाशक रसायन का छिड़काव या नीम के तेल का छिड़काव करे (3.0 ली. नीम का तेल 250 मि.ली. डिटरजेन्ट/हेक्टर की दर से )
    • कपास की व्यापक क्षति गूलर वेधक कीटों द्वारा होती है। इनके प्रकोप से 80 प्रतिशत तक फसल का नुकसान होता है। आर्थिक क्षति स्तर ज्ञात करने के बाद ही छिड़काव उपयोगी है। आर्थिक क्षति स्तर ज्ञात करने हेतु खेत को चार बराबर भागों में बांटना चाहिए। प्रत्येक भाग से कहीं भी 25 गिरे हुए स्कवायर्स कलियां व नए गूलर एकत्र कर उन कीटों द्वारा खाया हुआ सुराख या सुराख में मिले लार्वी मिलें की गणना करें। यदि 5 प्रतिशत से अधिक क्षति हो तो तुरन्त छिड़काव किया जाये। नेपसेक मशीनों हेतु 250-300 ली. प्रति हेक्टर घोल का छिड़काव पर्याप्त है। संस्तुत कीट रसायन निम्न हैं
    क्यूनालफास 25% ई.सी.2.00 लीटर.
    2मोनोक्रोटोफास 36 % एल.एल.1.25 लीटर.
    3क्लोरपाइरीफास 20% ई.सी.2.50 लीटर.
    4ट्रयजोफास 40% ई.सी.1.50 लीटर.
    5साइपरमेथरिन 10% ई.सी.500 मिली.
    6काबेमेथरिन 2.8% ई.सी.400 मिली.
    • रस चूषक कीटों के नियंत्रण हेतु संस्तुत रसायनों का प्रयोग गूलर वेधक कीटों के नियंत्रण में न करें।
    • यदि हरा फुदका (जैसिड) माहू (एफिड) मिस्सी (थ्रिप्स) का प्रकोप गूलर वेधक कीटों के साथ हो तो मोनोक्रोटोफास और यदि सफेद मक्खी का प्रकोप हो तो ट्रायजोफास का छिड़काव करें।
    • गूलर बेधक कीटों के प्रभावशाली नियंत्रण हेतु 10 दिन के अन्तर पर संस्तुत कीटनाशक रसायन का प्रयोग करें।
    • छिड़काव पूरे पौधे पर महीन फुहार के रूप में होना चाहिए। छिड़काव हेतु उपयुक्त ‘नोजल’ का भी होना अति आवश्यक है।
    • देशी कपास में दो छिड़काव फूल व गूलर वाली अवस्थाओं में करना उपयोगी हैं।
    • एक ही कीटनाशक रसायन का छिड़काव पुनः न दोहराया जावे।
    • छिड़काव के 24 घण्टे के अन्दर वर्षा हो जावे तो छिड़काव दोहरानी चाहिए।

    रोग एवं नाशीजीव का प्रबन्ध

    रोग तथा कीट प्रतिरोधी प्रजातियों का अभाव इसकी उपज में सबसे बड़ी रूकावट है। फसल को रोगों और कीटों से बचाने के लिए सारणी के अनुसार समयबद्ध पूर्ण छिड़काव करें।

    • आई.पी.एम. विधि द्वारा कीट नियंत्रण करें।
    • रस चूसने वाले कीटों जैसे हरा फुदका, माहू, तेला, सफेद मक्खी की रोकथाम हेतु डाइमिथोएट या मोनोक्रोटोफास रसायनों का प्रयोग करें।
    • पत्तियों को खाने वाली इल्लियों व गूलर वेधक कीटों की रोकथाम मोनोक्रोटोफास क्लोरपाइरीफास क्यूनालफास कार्बराइल या सिन्थेटिक पाइरेथोएड्स रसायनों द्वारा करें।
    • शाकाणु-झुलसा (ब्लैक आर्म) रोग नियंत्रण हेतु स्ट्रेप्टोसाइक्लीन सल्फेट या एग्रीमाइसीन के साथ ताम्रयुक्त फफूंदी नाशक रसायन मिलाकर छिड़काव करें।
    • शक्ति चालित मशीनों के छिड़काव में 150-200 लीटर व नेपसेक मशीन हेतु 600-800 ली./हे. पानी की आवश्यकता होती है।
    • छिड़काव के 24 घण्टे के अन्दर वर्षा हो जाये तो पुनः छिड़काव करें।
    • पत्तियों की निचली सतह पर पूरी तरह से छिड़काव किया जावे क्योंकि कीट इसी तरह पर रहते हैं।
    • देशी कपास में सारणी में दिये हुए प्रथम व दूसरा छिड़काव ही करें।

    पल्लवनाशक रसायन (डेफ्रोलियेन्ट) का प्रयोग

    यह प्रायः देखा गया है कि देर से बोई गई कपास की फसल में काफी बिना खिले हुये गूलर शेष रह जाते हैं जिसमें पैदावार पर विपरीत असर पड़ता है। इसकी रोकथाम के लिए ड्राप नामक रसायन की 200 ग्रा./हे. की दर से एक छिड़काव 60 प्रतिशत गूलर की खिलने की अवस्था में किया जाये। ऐसा करने से 40-50 प्रतिशत अधिक गूलर फट जाते हैं जिससे पैदावार बढ़ जाती है व गेहूँ की बुवाई हेतु भी खेत समय से खाली हो जाता है।

    चुनाई व भण्डारण

    इस बात का ध्यान देना आवश्यक है कि ओस हटने के पश्चात् ही चुनाई की जाये। चुनाई करते समय पूर्ण खिले हुए गूलरों की ही चुनाई की जाये। इसका भण्डारण भी अर्ध खिली हुई व कीटों से प्रभावित कपास से अलग रखा जाये। चुनाई के साथ सूखी पत्तियां डन्ठल नहीं आने चाहिए। इससे गुणवत्ता घटती है। भण्डारण से पूर्व कपास को भलीभांति सुखा लेना चाहिए। भण्डारण गृह भी भली प्रकार सूखा हो।

    कपास की खेती में आई.पी.एम. विधि द्वारा कीट नियन्त्रण

    फसल की हानिकारक कीटों के स्तर को आर्थिक क्षति स्तर के नीचे रखने के लिए फसलों में अवरोधिता तथा वातावरण के अनुकूल सभी उपयोगी पद्धतियों का समन्वित प्रयोग करना नाशीजीव समन्वित कीट प्रबंधन कहलाता है।

    फसल को जहां नाशीकीट क्षति करते हैं वहीं उनके शत्रु अर्थात् इन नाशी कीटों के परजीवी परभक्षी एवं बीमारी पैदा करने वाले जीव भी मौजूद रहते हैं। कीटनाशक रसायनों के अन्धाधुंध प्रयोग से ये लाभप्रद कीट भी मर जाते हैं और उस वातावरण में प्रमुख क्षति करने वाले कीटों को निर्बाध बढ़ने का अवसर मिलता हैं। कपास की फसल में जहां पूरी फसल – पर्यन्त कीड़े क्षति करते हैं लगातार रासायनिक उपचार से एक ओर विभिन्न कीटों में जहां पूरी फसल–पर्यन्त कीड़े क्षति करते हैं लगातार रासायनिक उपचार से एक ओर विभिन्न कीटों में रसायनों के प्रति अवरोधिता बढ़ती है तो दूसरी ओर मित्र कीटों के विनाश से शत्रु कीटों को बढ़ने का अवसर मिलता है

    1क्यूनालफास 25% ई.सी.2.00 लीटर.
    2मोनोक्रोटोफास 36 % एल.एल.1.25 लीटर.
    3क्लोरपाइरीफास 20% ई.सी.2.50 लीटर.
    4ट्रयजोफास 40% ई.सी.1.50 लीटर.
    5साइपरमेथरिन 10% ई.सी.500 मिली.

    6
    काबेमेथरिन 2.8% ई.सी.400 मिली.
  13. कपास के अवस्थावार नाशीजीव

    कपास के जमाव से लेकर उसकी बढ़वार पुष्प गूलर तथा चुनाई की अवस्थाओं में भिन्न-भिन्न किस्म के नाशीजीवी एवं बीमारियां सक्रिय रहते हैं। संक्षेप में प्रमुख नाशीकीटों एवं बीमारियां अवस्थावार इस प्रकार क्षति करते हैं

    1. वानस्पतिक बढ़वार अवस्था (1 से 30 दिन)

    इस अवस्था में कोमल फुन्गियों से रस चूसने वाले माहूँ भुनगे एवं थ्रिप्स से नुकसान होता है। इसके अतिरिक्त पत्तियों को निचली सतह पर रस चूसने वाली माइट एवं कोमल बढ़वार से रस चूसने वाली सफेद मक्खी प्रमुख है।

    2. कलिक विकास अवस्था (31 से 60 दिन)

    इस अवस्था में भी सामान्यतः प्रथम अवस्था के समस्त कीट क्षति करते हैं।

    3. पुष्प अवस्था (61 से 100 दिन)

    इस अवस्था में भी प्रथम एवं दूसरी अवस्था वाले कीट के प्रकोप के साथ-साथ निम्न कीड़ों का प्रकोप प्रारम्भ हो जाता है

    1चित्तीदार कीटकोमल फुगिंयों एवं पुष्प कलिकाओं को क्षति करती हैं।
    2गुलाबी कीटफुन्गियों के साथ ही पुष्पों एवं कलिकाओं में अण्डे देने लगती हैं।
    3तम्बाकू सूंडीयह पत्तियों को चाटकर कंकाल बनाती हैं और बाद में कलियों एवं फूलों की क्षति करती है।
    4अमेरिकन बालवर्म (हेलिकोवर्पा)यह कीट आरम्भ में कलिकाओं तथा पुष्प को क्षति करता है।

    4. 100 दिन से आगे (गूलर बनने एवं पकने की अवस्था)

    पुष्प अवस्था के सभी कीट इस अवस्था में बढ़ते हैं और गूलरों को क्षति पहुंचाते हैं। इसमें निम्नलिखित कीड़े विशेष सक्रिय होते हैं

    • सभी गूलर भेदक
    • तम्बाकू सूडी
    • लाल कीडा- यह लाल-कले रंग का मत्कुण (बग) कीट कपास के नये गूलरों से रस चूसता है उन्हें सुखा देता है और खिलने पर कपास को रंगकर उसकी गुणवत्ता को प्रभावित करता है।

    कपास के मित्र जीव

    कपास में लगने वाले कीड़ों के नियंत्रण हेतु उपयोगी (मित्र) जीव इस प्रकार हैं

    • भेदक कीड़ों के अण्ड परजीवीः ट्राइकोग्रामाटे्लोनोमास तथा टेट्रस्टीकस स्पेसीज।
    • भेदक तथा सूंडी नाशी कीटों के लिए सूंड़ी परजीवी: किलोनस कोटिशिया (अपैनटेलिस) ब्रेकान तथा कम्पोलेटिस।
    • न्यूक्लियरपाली हाइड्रोसिस वाइरस अर्थात् एन.पी.वी. : यह एक प्रभावी वाइरस है जो पत्ती खाने वाले सूंड़ी कीटों में बीमारी पैदा करता है। प्रत्येक प्रजाति की सूंड़ी के लिए अलग-अलग वायरस की आवश्यकता होती है।
    • परभक्षी कीड़े-(क) क्राइसोपा (ग्रीनलेसविंग) यह कीड़ा माहू सफेद मक्खी भेदक कीड़ों के अण्डों तथा उनकी प्रारम्भिक सूंड़ियों को खाकर नष्ट करते हैं।
    • इन्द्रगोप भृंग इन कीटों के शिशु तथा वयस्क माहू को तेजी से खाते हैं।
    • जैविक कीटनाशक (पेस्टीसाइड): इस श्रेणी में एन.पी.वी. वाइरस के अतिरिक्त निम्नलिखित दो प्रमुख जैविक पदार्थ उपयोग में हैं।
    • वैसीलस थ्यूरिन जिएन्सिस (बी.टी.) नामक शाकाणु पर आधारित कीटनाशक यह छिड़काव के योग्य तरल अथवा घुलनशील पाउडर के रूप में इस बैक्टीरिया पर आधारित पदार्थ जो अमेरिकन बालवर्म (हैलिकोवर्पा) इरीयस तथा तम्बाकू-सूंड़ी पर बहुत प्रभावी है।
    • नीम आधारित पदार्थ: नीम के तेल अथवा पकी हुई निबौलियों पर आधारित उनके एजाडीरेक्टिन नामक पदार्थ सक्रिय अंश वाले ये कीटनाशक के पास में माहूं जैसिड सफेद मक्खी तथा गूलरभेदक के नियंत्रण में प्रभावी हैं। इसके प्रयोग से कीड़ों का प्रकोप नहीं होता है।
    • कपास के लिए आई.पी.एम. पद्धतियों के उपाय का विवरण निम्नवत् है
      खेती सम्बन्धी उपाय

      • ऐसे खेत का चुनाव जिसमें यथा सम्भव वर्ष में तिल अथवा कपास की फसल न ली गई हो।
      • गर्मी के मौसम में खेत की गहरी जुताई करके कुछ समय खुला छोड़ना।
      • कपास के खेत में फसल के ठूंठ तथा डंठल आदि को फैले न छोड़ना वरन् उन्हें इकट्ठा करके जला देना।
      • बिनौला की पेराई अप्रैल माह से पूर्व की कर लेना।
      • प्रतिरोधक/सहनशील प्रजातियों का चयन करके बोना। उत्तर प्रदेश में प्रचलित प्रजाति एफ-840 तथा एच-777 में गूलरभेदक कीड़ों के प्रति अवरोधिता है।
      • बीजों को तेजाब से डिलिंटग करके तथा थीरम/कार्बेन्डाजिम से शोधित करके बोना।
      • समय से बुवाई करना तथा लोबिया अथवा प्याज के साथ मिली-जुली खेती करना।
      • कपास के साथ अथवा उसके आस-पास भिन्डी एवं मूंग की फसलें न उगाना।
      • कपास की आखिरी बिनाई के बाद अवशेषों को जानवरों को चरने देना। या जलाकर नष्ट कर देना चाहिए।
      • खेत तथा उसके चारों ओर खरपतवारों को प्रभावी नियंत्रण करना।

      यान्त्रिक उपाय

      • बढ़वार की अवस्था में ग्रसित फुन्गियां अथवा प्रारंभिक कलियों को तोड़कर नष्ट कर देना।
      • 110 दिन की फसल पर ऊपरी फन्गियों को काटकर नष्ट कर देना।
      • गंधपास (फेरोमोनट्रेप) लगाकर अमेरिकन बालवर्म या स्पाडेप्टेरा के प्रकोप का आंकलन करना तथा गन्ध पास में एकत्र कर नरों को नष्ट करना।
      • प्रकाश प्रपंच (लाइटट्रेप) फसल के शत्रु एवं मित्र कीटों का आंकलन करने हेतु प्रयोग करें।

      मित्र जीवों का संरक्षण

      • प्रारम्भ से ही प्रति सप्ताह फसल का सावधानी से अवलोकन करके कीड़ों के प्रकोप तथा मित्र परभक्षी परजीवी कीटों के स्तर का आंकलन करना।
      • कपास के प्रत्येक 10 पंक्ति के बाद मक्का अथवा लोबिया की दो पंक्ति होने से मित्र प्राणी समूह के संरक्षण में मदद मिलती है।
      • कौआ मैना नीलकंठ आदि पक्षियों के लिए पक्षी-ठिकाना बर्ड पर्चर की व्यवस्था की जाए।

      उपयोगी प्राणियों की बढ़ोत्तरी

      • माहूं आदि कीड़ों के प्रकोप के समय 15 दिन के अन्तराल पर दो बार 50000 प्रति हेक्टेयर की दर से क्राइसोपर्ला के अण्डे तथा प्रथम अवस्था के शिशु छोड़े जाएं।
      • कपास के गूलरभेदक कीड़ों के दिखाई देने पर अथवा बुवाई के 40 दिन बाद 1,50,000 ट्राइकोगामा किलोनिस प्रति हेक्टेयर सप्ताह में 6 बार।
      • अमेरिकन कपास भेदक तथा तम्बाकू सूंड़ी (हेलिमेथिस स्पाडेप्टेरा) के नियंत्रण हेतु एन.पी.वी. 250 लार्बलइक्यूवलेन्ट (250 प्रभावित सूंड़ियों से तैयार रस) प्रति हेक्टेयर छिड़काव करें।
      • बैसिलस थ्यूरिन जियनेसिस आधारी कीटनाशक पदार्थों का 500 ग्राम से एक किलोग्राम पदार्थ प्रति हेक्टेयर की दर से दो बार प्रयोग करें।
      • हानिकारक तथा लाभप्रद कीड़ों का स्तर 2:1 के स्थिति तक कोई रासायनिक उपचार न करें।
      • जड़गलन क्षेत्रों में ट्राइको|डरम हार्जिवेनम की 4 ग्राम/किग्रा. बीज की दर से उपचार करें।

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