अंगूर की खेती



         अंगूर की खेती                                                                      बागवानी फसलों में अंगूर की खेती का भी एक प्रमुख स्थान है। भारत में इसकी खेती मुख्यरूप से पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में की जा रही है। यहां किसान अंगूर की खेती कर अच्छा मुनाफा कमा रहे हैं। भारत के इन राज्यों में अंगूर का उत्पादन, उत्पादकता और क्षेत्रफल में बढ़ोतरी हुई है। आज यहां के कई किसान अंगूर की आधुनिक खेती कर अच्छा उत्पादन प्राप्त करने के साथ ही बंपर कमाई कर रहे हैं। आज अंगूर ने उत्तर भारत में भी एक महत्वपूर्ण फल के रूप में अपना स्थान बना लिया है और इन क्षेत्रों में इसका क्षेत्रफल काफी तेजी से बढ़ता जा रहा है। आज हम ट्रैक्टर जंक्शन के माध्यम से किसानों को अंगूर की खेती की आधुनिक तरीके से की जा रही खेती की जानकारी दे रहे हैं ताकि किसान इससे फायदा उठा सकें। आशा करते हैं ये जानकारी आपके लिए लाभदायक साबित होगी। 

अंगूर में पोषक तत्व, उपयोग और लाभ 

अंगूर एक स्वादिष्ट फल है। भारत में अंगूर अधिकतर ताजा ही खाया जाता है वैसे अंगूर के कई उपयोग हैं। फल के तौर पर खाने के अलावा इनसे किशमिश, मुनक्का, जूस, जैम और जैली भी बनाए जाते हैं। इसके अलावा इसका उपयोग मदिरा बनाने में भी किया जाता है। अंगूर में कई पोषक, एंटी ऑक्सीडेंट, एंटी बैक्टीरियल तत्व पाए जाते हैं। इसमें मौजूद पॉली-फेनोलिक फाइटोकैमिकल कंपाउंड हमारे स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद होने के कारण अंगूर का सेवन काफी लाभकारी माना गया है। इसके अलावा इसका सेवन कई बीमारियों में गुणकारी है। अंगूर कैंसर सेल्स को बढऩे से रोकता है, हार्ट अटैक के खतरे को कम करता है। डायबिटीज में भी इसका सेवन फायदेमंद बताया गया है। इसके अलावा ये कब्ज की शिकायत को दूर कर सकता है। ये आंखों के लिए भी फायदेमंद होता है। 

अंगूर में पोषक तत्व, उपयोग और लाभ (Benefits of Grapes)

अंगूर एक स्वादिष्ट फल है। भारत में अंगूर अधिकतर ताजा ही खाया जाता है वैसे अंगूर के कई उपयोग हैं। फल के तौर पर खाने के अलावा इनसे किशमिश, मुनक्का, जूस, जैम और जैली भी बनाए जाते हैं। इसके अलावा इसका उपयोग मदिरा बनाने में भी किया जाता है। अंगूर में कई पोषक, एंटी ऑक्सीडेंट, एंटी बैक्टीरियल तत्व पाए जाते हैं। इसमें मौजूद पॉली-फेनोलिक फाइटोकैमिकल कंपाउंड हमारे स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद होने के कारण अंगूर का सेवन काफी लाभकारी माना गया है। इसके अलावा इसका सेवन कई बीमारियों में गुणकारी है। अंगूर कैंसर सेल्स को बढऩे से रोकता है, हार्ट अटैक के खतरे को कम करता है। डायबिटीज में भी इसका सेवन फायदेमंद बताया गया है। इसके अलावा ये कब्ज की शिकायत को दूर कर सकता है। ये आंखों के लिए भी फायदेमंद होता है। 

भारत में अंगूर की खेती के लिए भूमि और जलवायु (Angur Ki Kheti)

अंगूर की खेती के लिए अच्छे जल निकास वाली रेतीली, दोमट मिट्टी उपयुक्त पाई गई है। इसमें इसकी खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। वहीं अधिक चिकनी मिट्टी इसकी खेती के लिए ठीक नहीं रहती है। इसकी खेती के लिए गर्म, शुष्क, तथा दीर्घ ग्रीष्म ऋतु अनुकूल रहती है। अंगूर के पकते समय वर्षा या बादल का होना बहुत ही हानिकारक है। इससे दाने फट जाते हैं और फलों की गुणवत्ता पर बहुत बुरा असर पड़ता है। \

अंगूर की खेती का उचित समय / अंगूर की उन्नत खेती

दिसंबर से जनवरी महीने में फसल की तैयार की गई जड़ की रोपाई की जाती है।

अंगूर की उन्नत किस्में

अंगूर की कई प्रकार की किस्में पाई जाती है उनमें से प्रमुख उन्नत किस्मों की विशेषताएं नीचे दी जा रही हैं। 

परलेट

यह उत्तर भारत में शीघ्र पकने वाली किस्मों में से एक है। इसकी बेल अधिक फलदायी तथा ओजस्वी होती है। गुच्छे माध्यम, बड़े तथा गठीले होते हैं एवं फल सफेदी लिए हरे तथा गोलाकार होते हैं। फलों में 18 - 19 तक घुलनशील ठोस पदार्थ होते हैं। गुच्छों में छोटे-छोटे अविकसित फलों का होना इस किस्म की मुख्य समस्या है। 

ब्यूटी सीडलेस 

यह वर्षा के आगमन से पूर्व मई के अंत तक पकने वाली किस्म है गुच्छे मध्यम से बड़े लम्बे तथा गठीले होते हैं। फल मध्यम आकर के गोलाकार बीज रहित एवं काले होते हैं। जिनमे लगभग 17-18 घुलनशील ठोस तत्व पाए जाते हैं। 

पूसा सीडलेस

इस किस्म के कई गुण थाम्पसन सीडलेस किस्म से मेल खाते हैं। यह जून के तीसरे सप्ताह तक पकना शुरू होती है। गुच्छे मध्यम, लम्बे, बेलनाकार सुगंधयुक्त एवं गठे हुए होते हैं। फल छोटे एवं अंडाकार होते हैं। पकने पर हरे पीले सुनहरे हो जाते हैं। फल खाने के अतिरिक्त अच्छी किशमिश बनाने के लिए उपयुक्त है। 

अनब-ए-शाही

यह किस्म आंध्र प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और कर्नाटक राज्यों में उगाई जाती है। यह किस्म देर से परिपक्व होने वाली और भारी पैदावार वाली है। बेरियां जब पूरी तरह से परिपक्व हो जाती है तो ये लम्बी, मध्यम लंबी, बीज वाली और एम्बर रंग की हो जाती है। इसका जूस साफ और मीठा होता है। यह कोमल फफूंदी के प्रति अत्यधिक संवेदनशील है। औसतन उपज 35 टन है। 

बंगलौर ब्लू (अंगूर का गुच्छा)

यह किस्म कर्नाटक में उगाई जाती है। बेरियां पतली त्वचा वाली छोटी आकार की, गहरे बैंगनी, अंडाकार और बीजदार वाली होती है। फल अच्छी क्वालिटी का होता है और इसका उपयोग मुख्यत: जूस और शराब बनाने में होता है। यह एन्थराकनोज से प्रतिरोधी है लेकिन कोमल फफूंदी के प्रति अतिसंवेदनशील है।

भोकरी

यह किस्म तमिलनाडू में उगाई जाती है। इसकी बेरियां पीली हरे रंग की, मध्यम लंबी, बीजदार और मध्यम पतली त्वचा वाली होती है। यह किस्म कमजोर क्वालिटी की होती है और इसका उपयोग टेबल प्रयोजन के लिए होता है। यह जंग और कोमल फफूंदी के प्रति अतिसंवेदनशील है। औसतन उपज 35 टन/ हेक्टेयर/ वर्ष है।

गुलाबी

यह किस्म तमिलनाडू में उगाई जाती है। इसकी बेरियां छोटे आकार वाली, गहरे बैंगनी, गोलाकार और बीजदार होती है। यह किस्म अच्छी क्वालिटी की होती है और इसका उपयोग टेबल प्रयोजन के लिए होता है। यह क्रेकिंग के प्रति संवदेनशील नहीं है परन्तु जंग और कोमल फफूंदी के प्रति अतिसंवेदनशील है। औसतन उपज 10-12 टन / हेक्टेयर है।

काली शाहबी

इस किस्म छोटे पैमाने पर महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश राज्यों में उगाई जाती है। इसकी बेरियां लंबी, अंडाकार बेलनाकार, लाल- बैंगनी और बीजदार होती है। यह किस्म जंग और कोमल फफूदी के प्रति अतिसंवेदनशील है। औसतन उपज 10-12 टन/ हेक्टेयर है। वैराइटी जंग के लिए तिसंवेदनशील है और कोमल फफंूदी। औसतन उपज 12-18 टन/हैक्टेयर है। 

परलेटी

यह किस्म पंजाब, हरियाणा और दिल्ली के राज्यों में उगाई जाती है। इसकी बेरियां बीजरहित, छोटे आकार वाली, थोडा एलपोसोडियल गोलाकार और पीले हरे रंग की होती है। यह किस्म अच्छी क्वालिटी की होती है और इसका उपयोग टेबल प्रयोजन के लिए होता है। कल्सटरों के ठोसपन की वजह से यह किस्म किशमिश के लिए उपयुक्त नहीं है। इसकी औसतन पैदावार 35 टन है।

थॉम्पसन सीडलेस

इस किस्म महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और कर्नाटक में उगाई जाती है। इसे व्यापक रूप से बीजरहित, इलपसोडियल लंबी, मध्यम त्वचा वाली सुनहरी-पीली बेरियों के रूप में अपनाया जाता है। यह किस्म अच्छी क्वालिटी की होती है और इसका उपयोग टेबल प्रयोजन और किशमिश बनाने के लिए किया जाता है। औसतन पैदावार 20-25 टन / हैक्टेयर है। 

शरद सीडलेस

यह रूस में स्थानीय किस्म है और इसे किशमिश क्रोनी कहा जाता है। इसकी बेरियां बीजरहित, काली, कुरकरी और बहुत ही मीठी होती है। इसमें टीएसएस 24 डिग्री ब्रिक्स तक होता है। इसे विशेष रूप से टेबल उद्देश्य हेतु उगाया जाता है।

कलम द्वारा अंगूर का प्रवर्धन

अंगूर का प्रवर्धन मुख्यत: कटिंग कलम द्वारा होता है। जनवरी माह में काट छांट से निकली टहनियों से कलमें ली जाती हैं। कलमें सदैव स्वस्थ एवं परिपक्व टहनियों से लिए जाने चाहिए। सामान्यत: 4 - 6 गांठों वाली 23 - 45 से.मी. लंबी कलमें ली जाती हैं। कलम बनाते समय यह ध्यान रखें कि कलम का नीचे का कट गांठ के ठीक नीचे होना चाहिए एवं ऊपर का कट तिरछा होना चाहिए। इन कलमों को अच्छी प्रकार से तैयार की गयी तथा सतह से ऊंची क्यारियों में लगा देते हैं। एक वर्ष पुरानी जडय़ुक्त कलमों को जनवरी माह में नर्सरी से निकल कर खेत में रोपित कर देते हैं। 

अंगूर की बेलों की रोपाई

रोपाई से पूर्व मिट्टी की जांच अवश्य करवा लें। खेत को भलीभांति तैयार कर लें। बेल की बीच की दूरी किस्म विशेष एवं साधने की पद्धति पर निर्भर करती है। इन सभी चीजों को ध्यान में रख कर 90 x 90 से.मी. आकर के गड्ढे खोदने के बाद उन्हें 1/2 भाग मिट्टी, 1/2 भाग गोबर की सड़ी हुई खाद एवं 30 ग्राम क्लोरिपाईरीफास, 1 कि.ग्रा. सुपर फास्फेट व 500 ग्राम पोटेशियम सल्फेट आदि को अच्छी तरह मिलाकर भर दें। जनवरी माह में इन गड्ढों में 1 साल पुरानी जड़वाली कलमों को लगा दें। बेल लगाने के तुंरत बाद पानी अवश्य दें।  

Grapes Farming : बेलों की सधाई एवं छंटाई

बेलों से लगातार अच्छी फसल लेने के लिए एवं उचित आकर देने के लिए साधना एवं काट-छांट की सिफारिश की जाती है। बेल को उचित आकर देने के लिए इसके अनचाहे भाग के काटने को साधना कहते हैं, एवं बेल में फल लगने वाली शाखाओं को सामान्य रूप से वितरण हेतु किसी भी हिस्से की छंटनी को छंटाई कहते हैं। 

अंगूर की बेल साधने की पद्धति

अंगूर की बेल साधने हेतु पंडाल, बाबर, टेलीफोन, निफिन एवं हैड आदि पद्धतियां प्रचलित हैं। लेकिन व्यवसायिक इतर पर पंडाल पद्धति ही अधिक उपयोगी सिद्ध हुई है। पंडाल पद्धति द्वारा बेलों को साधने हेतु 2.1 - 2.5 मीटर ऊंचाई पर कंक्रीट के खंभों के सहारे लगी तारों के जाल पर बेलों को फैलाया जाता है। जाल तक पहुंचने के लिए केवल एक ही ताना बना दिया जाता है। तारों के जाल पर पहुंचने पर ताने को काट दिया जाता है ताकि पाश्र्व शाखाएं उग आयें। उगी हुई प्राथमिक शाखाओं पर सभी दिशाओं में 60 सेमी दूसरी पाश्र्व शाखाओं के रूप में विकसित किया जाता है। इस तरह द्वितीयक शाखाओं से 8-10 तृतीयक शाखाएं विकसित होंगी इन्हीं शाखाओं पर फल लगते हैं। 

अंगूर की बेलों की काट-छांट कैसे करें (Angur Ki Kheti Kaise Kare)

बेलों से लगातार एवं अच्छी फसल लेने के लिए उनकी उचित समय पर काट-छांट का कार्य आवश्यक है। जब बेल सुसुप्त अवस्था में हो तो छंटाई की जा सकती है, परन्तु कोंपले फूटने से पहले प्रक्रिया पूरी हो जानी चाहिए। सामान्यत: काट-छांट जनवरी माह में की जाती है। छंटाई की प्रक्रिया में बेल के जिस भाग में फल लगें हों, उसके बढ़े हुए भाग को कुछ हद तक काट देते हैं। यह किस्म विशेष पर निर्भर करता है। किस्म के अनुसार कुछ स्पर को केवल एक अथवा दो आंख छोडक़र शेष को काट देना चाहिए। इन्हें रिनिवल स्पर कहते हैं। आमतौर पर जिन शाखाओं पर फल लग चुके हों उन्हें ही रिनिवल स्पर के रूप में रखते हैं। छंटाई करते समय रोगयुक्त एवं मुरझाई हुई शाखाओं को हटा दें एवं बेलों पर ब्लाईटोक्स 0.2 प्रतिशत का छिडक़ाव अवश्य करें। 

अंगूर की खेती में सिंचाई कार्य (Grapes Cultivation)

अंगूर की बेल की छंटाई के बाद सिंचाई आवश्यक होती है। फूल आने तथा पूरा फल बनने (मार्च से मई) तक पानी की आवश्यकता होती है। इसके सिंचाई कार्य में तापमान तथा पर्यावरण स्थितियों को ध्यान में रखते हुए 7-10 दिन के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए। फल पकने की प्रक्रिया शुरू होते ही पानी बंद कर देना चाहिए नहीं तो फल फट एवं सड़ सकते हैं। फलों की तुड़ाई के बाद भी एक सिंचाई अवश्य कर देनी चाहिए। 

अंगूर की खेती में खाद एवं उर्वरक

पंडाल पद्धति से साधी गई एवं 3 x 3 मी. की दूरी पर लगाई गई अंगूर की 5 वर्ष की बेल में लगभग 500 ग्राम नाइट्रोजन, 700 ग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश, 700 ग्राम पोटेशियम सल्फेट एवं 50 - 60 कि.ग्रा. गोबर की खाद की आवश्यकता होती है। छंटाई के तुंरत बाद जनवरी के अंतिम सप्ताह में नाइट्रोजन एवं पोटाश की आधी मात्र एवं फास्फोरस की सारी मात्र दाल देनी चाहिए। शेष मात्र फल लगने के बाद दें। खाद एवं उर्वरकों को अच्छी तरह मिट्टी में मिलाने के बाद तुंरत सिंचाई करें। खाद को मुख्य तने से दूर 15-20 सेमी गहराई पर डालें। 

कैसे करें फल गुणवत्ता में सुधार

अच्छी किस्म के अंगूर के गुच्छे मध्यम आकर, मध्यम से बड़े आकर के बीजरहित दाने, विशिष्ट रंग, खुशबू, स्वाद व बनावट वाले होने चाहिए। ये विशेषताएं सामान्यत: किस्म विशेष पर निर्भर करती हैं। लेकिन नीचे दी गई निम्नलिखित विधियों द्वारा भी अंगूर की गुणवत्ता में सुधार किया जा सकता है। 

फसल निर्धारण

फसल निर्धारण के छंटाई सर्वाधिक सस्ता एवं सरल साधन है। अधिक फल, गुणवत्ता एवं पकने की प्रक्रिया पर बुरा प्रभाव छोड़ते हैं। अत: बेहतर हो यदि बाबर पद्धति साधित बेलों पर 60 - 70 एवं हैड पद्धति पर साधित बेलों पर 12 - 15 गुच्छे छोड़े जाएं। अत: फल लगने के तुंरत बाद संख्या से अधिक गुच्छों को निकाल दें। 

छल्ला विधि

इस तकनीक में बेल के किसी भाग, शाखा, लता, उपशाखा या तना से 0.5 से.मी. चौडाई की छाल छल्ले के रूप में उतार ली जाती है। छाल कब उतारी जाये यह उद्देश्य पर निर्भर करता है। अधिक फल लेने के लिए फूल खिलने के एक सप्ताह पूर्व, फल के आकर में सुधार लाने के लिए फल लगने के तुंरत बाद और बेहतर आकर्षक रंग के लिए फल पकना शुरू होने के समय छाल उतारनी चाहिए। आमतौर पर छाल मुख्य तने पर 0.5 से.मी चौड़ी फल लगते ही तुंरत उतारनी चाहिए। 

वृद्धि नियंत्रकों का उपयोग

बीज रहित किस्मों में जिब्बरेलिक एसिड का प्रयोग करने से दानों का आकर दो गुना होता है। पूसा सीडलेस किस्म में पुरे फूल आने पर 45 पी.पी.एम. 450 मि.ग्रा. प्रति 10 ली. पानी में, ब्यूटी सीडलेस मने आधा फूल खिलने पर 45 पी.पी.एम. एवं परलेट किस्म में भी आधे फूल खिलने पर 30 पी.पी.एम का प्रयोग करना चाहिए। जिब्बरेलिक एसिड के घोल का या तो छिडक़ाव किया जाता है या फिर गुच्छों को आधे मिनट तक इस घोल में डुबाया जाता है। यदि गुच्छों को 500 पी.पी.एम 5 मिली. प्रति 10 लीटर पानी में इथेफोन में डुबाया जाए तो फलों में अम्लता की कमी आती है। फल जल्दी पकते हैं एवं रंगीन किस्मों में दानों पर रंग में सुधार आता है। यदि जनवरी के प्रारंभ में डोरमैक्स 3 का छिडक़ाव कर दिया जाये तो अंगूर 1 - 2 सप्ताह जल्दी पक सकते हैं। 


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